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Publication Number

2412041

 

Page Numbers

1-6

Paper Details

कबीर के काव्य में मानव संवेदना और मानवीय मूल्य

Authors

Kulda Ram Saini

Abstract

कबीर दर्शन मानवीय मौलिक समस्याओं का समाधान है और मानवीय मूल्यों की स्थापना करने वाला है। उस में जिज्ञासा, श्रद्धा, विश्वास, अहमन्यता, माया-मोह-विनिर्मुक्तता, ऐन्द्रिक संयम, अनुबन्ध चतुष्ट्य का संगम है। मानव का अस्तित्त्व पूर्णतः कर्मवाद पर आधारित है। मनुष्य की मानवता का परिचायक तत्त्व कर्म है। कर्म के आधार पर मानव अन्य समस्त प्राणियों से श्रेष्ठ है। कर्म की उच्चता के आधार पर जीव मानव बनता है, तो कर्म की निम्नता के आधार पर जीव मानवेत्तर प्राणी बन जाता है। कर्म कार्य-कारण के नियम पर आधारित व्यवस्था है। इस लिये कबीर दर्शन मानव तथा अन्य सभी प्राणियों में समान रूप से पाये जाने वाले जैविक बुभुक्षा से सम्बद्ध कर्मों में लिप्त मानव को मानवाकार होते हुए भी मानवेत्तर प्राणी मानता है। कबीर दर्शन व्यापक नैतिक व्यवस्था को ही धर्म मानता है और कर्मकाण्डों का विरोध करता है। नैतिक व्यवस्था आन्तरिक होती है, बाह्याचार से उस का कोई सरोकार नहीं होता है। मानव मात्र मानव है। धार्मिक सम्प्रदायों के अनुसार न तो वह हिन्दू है न ही मुसलमान न ही अन्य कुछ और। विभिन्न जातियाँ-उपजातियाँ चातुर्वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था को मात्र चलाने के लिये हैं। मानव का अस्तित्त्व इन सब से ऊपर है। सन्त परम्परा का अपना ही विशिष्ट दर्शन है, जो स्वसिद्धान्तों को प्रतिपादन स्वानुभूति के आधार पर करते हैं। वेद, प्रस्थानत्रयी या किसी अन्य स्वतंत्र शास्त्र से सन्त परम्परा के दर्शन से प्रसूत नहीं हैं। ये दर्शन सैद्धान्तिक तार्किकता के अपेक्षा व्यावहारिकता पर अधिक बल देते हैं। विशिष्ट विचारात्मक ज्ञान की अपेक्षा व्यवहार की समस्याओं के समाधान पर विशेष ध्यान देते हैं। सन्त परम्परा के अग्रदूत कबीर के दर्शन के प्रमुख स्रोत सद्गुरु के उपदेश, सतसंग तथा स्वानुभूति ही हैं। कबीर दर्शन उस मानव का दर्शन है, जिस का मूल ही सहजता है। कबीर दर्शन, मानव का दर्शन और मानव के लिये दर्शन है।

Keywords

सन्त परम्परा का दर्शन, कर्मवाद, साधना मार्ग की विशेषताएँ, पुरुषार्थ चतुष्टय, कबीर का दर्शन।

 

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Citation

कबीर के काव्य में मानव संवेदना और मानवीय मूल्य. Kulda Ram Saini. 2024. IJIRCT, Volume 10, Issue 5. Pages 1-6. https://www.ijirct.org/viewPaper.php?paperId=2412041

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