contact@ijirct.org      

 

Publication Number

2502072

 

Page Numbers

1-6

Paper Details

जयशंकर प्रसाद: साहित्यिक यात्रा में जीवन संघर्ष, कलात्मक अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक पुनर्जागरण

Authors

कौशल कुमार शर्मा

Abstract

जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के महान रचनाकारों में से एक थे, जिनकी साहित्यिक यात्रा संघर्षों से भरी रही। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय समाज, संस्कृति और कला को एक नवीन दिशा प्रदान की। उनकी काव्य, नाटक और गद्य रचनाएँ भारतीय सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने का कार्य करती हैं। प्रस्तुत शोध-पत्र में उनके जीवन संघर्ष, साहित्यिक योगदान और उनकी कृतियों में कलात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण की चर्चा की जाएगी।
जयशंकर प्रसाद का जीवन संघर्ष जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को वाराणसी में हुआ था। वे एक संपन्न परिवार से थे, लेकिन पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उन्हें अनेक आर्थिक और सामाजिक संघर्षों का सामना करना पड़ा। किशोरावस्था में ही माता-पिता का साया सिर से उठ जाने के कारण उन्होंने जीवन में कठिनाइयों को झेला, लेकिन साहित्य में उनकी रुचि ने उन्हें एक महान लेखक बनने की ओर प्रेरित किया।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा परंपरागत गुरुकुल पद्धति में हुई, जिससे उन्हें संस्कृत, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का गहन ज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में उन्होंने स्वतंत्र रूप से अध्ययन कर साहित्य और दर्शन में अपनी गहरी अंतर्दृष्टि विकसित की। उनके जीवन का यह संघर्ष उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
जयशंकर प्रसाद के नामकरण की कथा भी उतनी ही रोचक है जितना उनका साहित्यिक व्यक्तित्व। उनके परिवार का मानना था कि महाकाल के ज्योतिर्लिंग वैद्यनाथ धाम की आराधना और गहन तप के फलस्वरूप ही उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इसी विश्वास के तहत उनका नामकरण वैद्यनाथ धाम में किया गया, और उन्हें "शंकर" नाम दिया गया। हालांकि हिंदी साहित्य और दुनिया के लिए वे 'जयशंकर प्रसाद' बन गए, लेकिन उनके परिवार के लिए वे आजीवन 'शंकर' ही रहे।
कलात्मक अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक पुनर्जागरण जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में कला और संस्कृति का अद्भुत संयोजन देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय दर्शन, संस्कृति और परंपराओं को न केवल व्यक्त किया, बल्कि उन्हें एक नवीन दृष्टिकोण भी दिया। उनकी भाषा सहज, काव्यात्मक और गहरी संवेदनाओं से परिपूर्ण होती है, जो पाठकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।
उनकी कृतियाँ भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को चुनौती देती हैं और एक नए जागरण की प्रेरणा देती हैं। 'कामायनी' में जीवन, प्रेम, संघर्ष और आशा के तत्वों को गहराई से दर्शाया गया है। वहीं, उनके नाटकों में ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को बल मिलता है।
जयशंकर प्रसाद का जीवन जितना गहन और संघर्षपूर्ण था, उनकी मृत्यु भी उतनी ही मार्मिक रही। उनका निधन 15 नवंबर 1937 को हुआ। उनके निधन पर सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखा:
"किया मुंह कुकू मुखर लिया कुछ दिया अधिकतर,
पिया गरल पर किया जाति साहित्य को अमर।"
उनकी यह पंक्तियाँ उनके जीवन की संपूर्णता और उनकी रचनात्मकता को समर्पित काव्य यात्रा का सार प्रस्तुत करती हैं। जयशंकर प्रसाद, अपने जीवन के संघर्षों और साहित्यिक दृष्टिकोण के माध्यम से, हिंदी साहित्य को न केवल समृद्ध करते हैं, बल्कि इसे नई ऊँचाइयों तक भी पहुँचाते हैं। छोटे शहरों और कस्बों में यह आम बात है कि जप-तप और धार्मिक अनुष्ठानों से जन्मे बच्चों का बचपन विभिन्न आस्था स्थलों की यात्राओं में बीतता है। जयशंकर प्रसाद का बचपन भी इससे अछूता नहीं रहा। गोविंदलाल छाबड़ा ने इस संदर्भ में लिखा है, “संस्कार संपन्न करने के उद्देश्य से 5 वर्ष की अवस्था में उन्हें जौनपुर और विंध्याचल के रमणीय स्थलों पर ले जाया गया।" नौ वर्ष की आयु तक प्रसाद ने अपने परिवार के साथ चित्रकूट, नैमिषारण्य, मथुरा, ओंकारेश्वर, धाराक्षेत्र, उज्जैन जैसे अनेक तीर्थ स्थलों और प्राकृतिक छविमंदिरों की यात्राएँ कीं।
प्रसाद का परिवार शैव परंपरा का अनुयायी था, जो शिवोपासना और शैव दर्शन के चिंतन-मनन में गहरी आस्था रखता था। इस संदर्भ में रमेशचंद्र शाह लिखते हैं, "यह परिवार शैव था।... कहा जाता है कि कश्मीरी शैवागम, दूसरे शब्दों में सगुण अद्वैत, इस परिवार का स्वीकृत धर्म-विश्वास था। उनके घर में एक निजी शिव मंदिर था, जहाँ विधि-विधान और समारोहपूर्वक पूजा-अर्चना होती थी।" प्रसाद के नाम और उनके संस्कारों में भगवान शिव और शिवोपासना की गहरी छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
जयशंकर प्रसाद का प्रारंभिक जीवन सुख और समृद्धि से भरा हुआ था। उनके पिता विद्वान और संपन्न व्यक्ति थे, जिनके सानिध्य में प्रसाद परिवार के सभी सदस्यों का विशेष स्नेह पाते थे। प्रसाद का बाल्यकाल ऐसा था कि उनके लंबे, घने बालों के कारण उन्हें अक्सर लड़कियों जैसा समझा जाता था। रायकृष्ण दास ने इस विषय में उल्लेख किया है, "कभी-कभी उनकी माता उन्हें घाघली भी पहना दिया करतीं।"
हालाँकि, प्रसाद के जीवन की यह खुशहाल अवधि अधिक समय तक नहीं रही। जब वह मात्र 12 वर्ष के थे, उनके पिता का निधन हो गया। 15 वर्ष की अवस्था में उनकी माता का भी देहांत हो गया, और 17 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पितातुल्य बड़े भाई को भी खो दिया। इन त्रासद घटनाओं ने न केवल उनके जीवन को गहराई से प्रभावित किया, बल्कि उनके परिवार को आर्थिक रूप से भी कमजोर कर दिया। इन विषम परिस्थितियों में, पारिवारिक कलह ने स्थिति को और भी कठिन बना दिया।
इसके बावजूद, अपनी मेहनत, धैर्य और साहस के बल पर जयशंकर प्रसाद ने न केवल अपने परिवार को आर्थिक रूप से पुनः समृद्ध किया, बल्कि विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए अपने साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान के माध्यम से अमर कीर्ति प्राप्त की। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि विपरीत हालातों में भी धैर्य और संकल्प के साथ आगे बढ़ा जा सकता है।
जयशंकर प्रसाद की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही प्राचीन पद्धति के अनुसार संपन्न हुई। उनके घर पर विभिन्न विषयों के विद्वानों को विशेष रूप से पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया जाता था। इस संबंध में गोविंदलाल छाबड़ा ने उल्लेख किया है, "घर पर उन्हें संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी आदि विषयों को पढ़ाने के लिए पंडित और मौलवी आते थे।" यह परंपरा उनके परिवार के साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश के अनुकूल थी।
प्रसाद के पिता साहित्य और विद्या के प्रति अत्यंत प्रेम रखते थे। उनके समय में कवियों, पंडितों, ज्योतिषियों, और संगीतज्ञों का उनके घर नियमित आना-जाना होता था। रमेशचंद्र शाह ने इस संदर्भ में लिखा है, "यह परिवार अपने विद्या-प्रेम और दानशीलता के लिए विख्यात था। विद्वानों, कवियों, संगीतज्ञों, पहलवानों, वैद्यों और ज्योतिषियों का वहाँ रोज ही जमघट लगा रहता था।" इस समृद्ध बौद्धिक और सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव जयशंकर प्रसाद पर गहराई से पड़ा, और बचपन से ही उनमें साहित्य के प्रति गहरा प्रेम विकसित हुआ।
हालांकि, प्रसाद की औपचारिक शिक्षा क्वींस कॉलेज में केवल आठवीं कक्षा तक ही हो सकी। पिता की असामयिक मृत्यु और पारिवारिक कलह के कारण उन्हें नियमित शिक्षा से वंचित होना पड़ा। उनकी शेष शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया गया, जहाँ वे स्वाध्याय और विद्वानों के मार्गदर्शन के माध्यम से अपनी ज्ञान-पिपासा को तृप्त करते रहे। पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी प्रसाद ने कम उम्र में ही अपने कंधों पर उठा लिया। पितातुल्य बड़े भाई की मृत्यु के समय वे अविवाहित थे, और उन्होंने स्वयं अपने विवाह का प्रबंध किया। मात्र 20 वर्ष की आयु में उनका विवाह गोरखपुर में हुआ। हालांकि, यह सुखद अवधि लंबे समय तक नहीं टिक सकी, क्योंकि 10 वर्षों के भीतर ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। इस अपार दुःख के बावजूद, परिवार के आग्रह पर उन्होंने दूसरा विवाह किया, लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी दूसरी पत्नी का भी एक वर्ष के भीतर देहांत हो गया।
इन व्यक्तिगत त्रासदियों ने उन्हें गहरे मानसिक और भावनात्मक संकट में डाल दिया। मन को हल्का करने और दुःख से उबरने के उद्देश्य से वे काशी छोड़कर भुवनेश्वर, पुरी और महोदधि जैसे स्थानों की यात्राओं पर निकल गए। इन यात्राओं ने उन्हें कुछ हद तक सांत्वना प्रदान की। लौटने के बाद, अपनी भाभी के अत्यधिक आग्रह पर उन्होंने तीसरा विवाह किया।
जयशंकर प्रसाद का जीवन संघर्षों और व्यक्तिगत पीड़ाओं से भरा था, लेकिन इन कठिनाइयों ने उनकी रचनात्मकता और संवेदनशीलता को और अधिक गहराई प्रदान की, जो उनकी कृतियों में स्पष्ट रूप से झलकती है। उनके जीवन की विपरीत परिस्थितियाँ न केवल उनके व्यक्तित्व को मजबूत बनाने में सहायक बनीं, बल्कि उनके साहित्यिक योगदान को अमरता भी प्रदान की। जयशंकर प्रसाद का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली और आकर्षक था। उनका कद मध्यम था, और उनका रंग गेहुँआ था। स्वभाव से वे मर्यादित, शिष्ट, और स्वाभिमानी थे। सिद्धांतों के प्रति उनकी निष्ठा और आत्मसम्मान के प्रति उनकी सजगता उनके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ थीं। अपने आदर्शों पर अडिग रहना और आत्मसम्मान की रक्षा करना उनके जीवन के मूलभूत सिद्धांत थे।
यह माना जाता है कि प्रसाद ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से वैचारिक मतभेद के कारण सरस्वती पत्रिका के लिए लेखन नहीं किया। आत्मसम्मान के प्रति उनकी गहरी भावना का एक रोचक उदाहरण रवींद्रनाथ टैगोर से जुड़ा है। जब टैगोर काशी आए, तो प्रेमचंद ने प्रसाद से उनके साथ चलने का प्रस्ताव रखा। इस पर प्रसाद ने स्पष्ट रूप से कहा, "मुझे यह उचित नहीं लगता। जब इस मुलाकात की बात पहले ही तय हो चुकी थी, तो ठाकुर की ओर से आपको पत्र मिलना चाहिए था।" प्रसाद का यह विचार था कि मनुष्य द्वारा मनुष्य की पूजा करना उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने जैसा है।
'होनहार बिरवान के होत चिकने पात' की कहावत जयशंकर प्रसाद के जीवन पर सटीक बैठती है। बचपन से ही उनकी प्रतिभा के संकेत स्पष्ट रूप से दिखने लगे थे। एक दिलचस्प घटना उनके अन्नप्राशन संस्कार से जुड़ी है। पूजा विधि के दौरान शिशु प्रसाद को पुस्तकों, लेखनी, और बच्चों के लिए आकर्षक वस्तुओं के बीच अपनी पसंद चुनने के लिए छोड़ा गया। सबके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने अन्य सब चीजों को छोड़ केवल लेखनी उठाई और उसी से खेलने लगे। यह घटना उनके रचनात्मक स्वभाव की पहली झलक थी। मात्र नौ वर्ष की आयु में कविता रचने वाले जयशंकर प्रसाद ने इस कहावत को चरितार्थ किया। अपने आरंभिक दौर में उन्होंने कलाघर उपनाम से कविताएँ लिखना शुरू किया।
प्रसाद के कवि व्यक्तित्व के निर्माण में उनके पारिवारिक संस्कार और घरेलू वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उनका घर साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र था, जहाँ कवि, कलाकार, और विभिन्न भाषाओं के विद्वान नियमित रूप से आते-जाते रहते थे। यहाँ कवि सम्मेलनों और साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन होता था। ऐसे साहित्यिक माहौल में पले-बढ़े जयशंकर प्रसाद में कविता के प्रति गहरा लगाव विकसित हुआ। गुलाब राय ने लिखा है, "अल्हड़ जवानी में प्रसाद जी दुकान पर बैठकर खाते की रद्दी कागजों के पीछे कविताएँ लिखते थे।"
हालाँकि, कविता लिखने के प्रति उनके बड़े भाई का रुख प्रारंभ में कठोर था। उन दिनों कविता लिखने को व्यावसायिक दृष्टि से व्यर्थ और कवियों को समाज में निम्न दृष्टि से देखा जाता था। उनके भाई उन्हें एक कुशल व्यापारी बनाना चाहते थे और कविता को समय की बर्बादी समझते थे। जब उन्होंने प्रसाद को दुकान पर कविता लिखते देखा, तो वे क्रोधित हो गए और उन्हें कई घंटे दुकान पर बैठने को मजबूर किया ताकि वे कविता न लिख सकें। लेकिन सर्जना किसी भी वर्जना को स्वीकार नहीं करती। प्रसाद छुप-छुपकर खाते के पन्नों पर कविताएँ लिखते रहे।
आखिरकार, एक दिन उनके भाई को गद्दे के नीचे छिपाई गई सैकड़ों कविताएँ मिलीं। इसे देखकर उनका दृष्टिकोण बदला, और उन्होंने प्रसाद को स्वतंत्र रूप से कविता लिखने की अनुमति दे दी। यह स्वतंत्रता उनके जीवन के अंत तक जारी रही। इस संघर्ष और स्वतंत्रता के बीच प्रसाद का कवि व्यक्तित्व निखरता चला गया, और उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में अमिट छाप छोड़ी।
महाकवि जयशंकर प्रसाद एक अत्यधिक बहुमुखी और प्रतिभाशाली साहित्यकार थे। उनके लेखन का प्रारंभ ब्रजभाषा में हुआ था, और उनकी प्रारंभिक रचनाएँ इसी भाषा में रचित हैं, जिनका संकलन चित्राधार में हुआ है। हालांकि, समय की मांग और नवयुग की चेतना के प्रभाव में उन्होंने अपनी काव्यभाषा को ब्रजभाषा से बदलकर खड़ी बोली में रूपांतरित किया। इस बदलाव ने उनकी रचनाओं में एक नई दिशा और गहरी संवेदनाओं को जन्म दिया। जयशंकर प्रसाद के काव्य विकास को समझने के लिए उनकी काव्यरचनाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है: एक, ब्रजभाषा में रचित काव्य, और दूसरा, खड़ी बोली में रचित काव्य।
जयशंकर प्रसाद के काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ श्रृंगारीकरण और प्रेम से संबंधित हैं। प्रारंभ में उन्होंने प्रेम का चित्रण प्रकृति और नारी के माध्यम से किया, परंतु समय के साथ उनका रुझान अलौकिकता की ओर बढ़ा। उन्होंने सौंदर्य के सूक्ष्म और गहन अवयवों का चित्रण व्यंजनात्मक शैली में किया। बाह्य विषयों की तुलना में प्रसाद ने अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को अधिक प्रमुखता दी। उन्होंने प्राचीन भारतीय गौरव को अक्षुण्ण रखने के लिए ऐतिहासिक और पौराणिक आख्यानों का प्रयोग किया और वर्तमान के साथ उनका संबंध स्थापित किया। उनकी कविताओं में भावात्मकता को स्थान दिया गया है, और इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण उनकी काव्यरचनाएँ, विशेष रूप से कामायनी हैं।
इसके अतिरिक्त, प्रसाद के काव्य में समग्र मानवता और विश्व बंधुत्व का संदेश है। उनके साहित्य की शैली में वे सभी प्रवृत्तियाँ समाहित हैं, जो छायावाद की विशेषताएँ मानी जाती हैं। जयशंकर प्रसाद के काव्य में दो शब्द, मधु और करण, का प्रयोग अधिक मिलता है, जो उनकी विचारधाराओं और काव्य के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं। उनका काव्य जीवन के सूक्ष्म विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक अद्वितीय माध्यम है, जहाँ तार्किकता, बुद्धिवाद और दर्शन की अनूठी मंथन देखने को मिलती है।
कहा जाता है कि कवि का जन्म प्राकृतिक रूप से होता है, न कि किसी बाहरी प्रयास से। परिस्थितियाँ कवि के काव्यधारा की दिशा को प्रभावित कर सकती हैं, किंतु रचनात्मक प्रतिभा और भावनात्मक गहराई जन्मजात होती है। जयशंकर प्रसाद इस सिद्धांत के प्रमाण थे; वे जन्म से ही कवि थे। जयशंकर प्रसाद आधुनिक बोध और संवेदना के कवि थे, जिनके साहित्य में दो प्रमुख विचारधाराएँ परिलक्षित होती हैं: एक विचारधारा वैयक्तिकता से जुड़ी है, जबकि दूसरी सामाजिकता से संबंधित है। जब साहित्य में वैयक्तिकता का उत्थान होता है, तो आत्मानुभूति, भावात्मकता, सौंदर्य के प्रति आकर्षण, और नवीन प्रयोगों का विकास होता है। वहीं, जब सामाजिकता की दिशा प्रबल होती है, तो बाह्य विषयों का चित्रण, नैतिकता, मर्यादा, और प्राचीन परंपराओं का अनुसरण प्रमुख बनता है। समाज में जहां वैयक्तिकता का उत्थान सही नहीं माना जाता, वहीं साहित्य में यह सौंदर्य और माधुर्य के नए स्रोतों की सृष्टि करता है। जहाँ प्रसाद के काव्य में सामाजिकता का प्रभाव स्पष्ट है, वहाँ वैयक्तिकता का ह्रास देखने को मिलता है, और ऐसी कविताएँ नीति-शास्त्र और उपदेशों का संग्रह बनकर रह जाती हैं।
कविता में कल्पनाशक्ति का प्रयोग प्राचीन और मध्ययुगीन कवियों ने भी किया था, लेकिन छायावादी कवियों के साथ इसकी एक नई दिशा मिलती है। जहां कालिदास ने अपने काव्य में कल्पना को गौण रखा, वहीं आधुनिक छायावादी कवि अपने असंतुष्ट मन से किसी और काल या स्थान की खोज करते हैं, और अगर उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती, तो वे एक सुखद काल्पनिक लोक का निर्माण करते हैं।
जयशंकर प्रसाद के काव्य में यह कल्पना शक्ति, सौंदर्यबोध और जीवन के गहरे विचारों का मिश्रण अनिवार्य रूप से गूढ़ और प्रेरणादायक होता है, जो न केवल उनके समय की, बल्कि समग्र मानवता की संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
जयशंकर प्रसाद के काव्य में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना और आधुनिक भावबोध का गहरा प्रभाव दिखाई देता है, जो एक विशिष्ट युग चेतना से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कविता के माध्यम से प्रकृति के नयापन और संवेदनशील चित्रण को न केवल पहचाना, बल्कि उसे गहरी दृष्टि से सराहा भी। उनके लिए प्रकृति विश्वात्मा की छाया या प्रतिबिंब है, और उनका यह दृष्टिकोण मुख्य रूप से छायावाद के संदर्भ में प्रकट होता है। छायावाद पर चर्चा करते हुए प्रसाद ने यह स्पष्ट किया कि इसे युग की काव्यगत नवीनता के साथ-साथ राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना और आधुनिक भावबोध की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
हालांकि, प्रसाद को राष्ट्रीय चेतना के कवि के रूप में नहीं माना जा सकता, जैसा कि माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, या बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे कवियों के संदर्भ में होता है, लेकिन उनकी कविताओं में राष्ट्रीय जागरण के स्थान पर संस्कृत जागरण की विशेष अभिव्यक्ति है। उनकी कविता में संस्कृत जागरण स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है, जैसे कि "बीती विभावरी जाग री", "अब जागो जीवन के प्रभात", और "प्रथम प्रभात" जैसी रचनाओं में यह तत्व प्रमुख रूप से दिखाई देता है। यहां राष्ट्रीय भावना की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति नए रूपों में प्रकट होती है, और जयशंकर प्रसाद ने अपने काव्य में राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान को विशेष स्थान दिया है।
रवींद्रनाथ ठाकुर के सांस्कृतिक चिंतन और कला विवेक का गहरा प्रभाव जयशंकर प्रसाद और छायावादी कवियों पर पड़ा था। प्रसाद के काव्य में यह प्रभाव राष्ट्रीयता से परे, एक समग्र सांस्कृतिक चेतना में परिवर्तित हो जाता है, जो विश्व दृष्टिकोण से जुड़ी हुई है। इस दृष्टि में प्रसाद ने "कामायनी" जैसे महाकाव्य में विश्व मंगल की कल्पना को स्थान दिया। उनके काव्य में मानवता और समाज के कल्याण का मार्गदर्शन कल्पना के माध्यम से किया गया है। छायावाद के 'शक्ति-काव्य' को कभी-कभी 'राष्ट्रीय-काव्य' के रूप में देखा जाता है, लेकिन प्रसाद के काव्य में राष्ट्र जागरण की बजाय समग्र मानव चेतना का जागरण अधिक प्रमुख है। उनके काव्य में राष्ट्रीय जागरण संस्कृत जागरण के एक अंग के रूप में प्रस्तुत हुआ है, जो नवजागरण की मूल धारा के अनुरूप है।
जयशंकर प्रसाद के काव्य में राष्ट्रीयता का आधार राजनीति की बजाय संस्कृति है। उनका प्रसिद्ध वाक्य "अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहां पहुँच अनजान क्षितिज को मिलने एक सहारा" इस दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। इस कविता के माध्यम से वे न केवल राष्ट्रीयता, बल्कि एक सांस्कृतिक जागरण की ओर संकेत करते हैं।
आधुनिक हिंदी कविता में जयशंकर प्रसाद का स्थान सर्वोच्च है। वे छायावाद के प्रवर्तक और सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं, और उनके समकक्ष किसी अन्य कवि की बराबरी करना असंभव सा प्रतीत होता है। उनका महत्व इसी से स्पष्ट होता है कि गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के बाद कामायनी को काव्य में दूसरा स्थान प्राप्त है। वस्तुतः, प्रसाद में भावना, विचार और शैली का ऐसा अद्वितीय मेल है, जो विश्व के बहुत कम कवियों में संभव है। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व एक अविस्मरणीय छाप छोड़ता है, जो प्रेमी, कवि और दार्शनिक के गुणों से संपन्न है।
जयशंकर प्रसाद हिंदी के उन महान कवियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को न केवल संरक्षित किया, बल्कि उसे जीवित भी किया। उनके साहित्य में सांस्कृतिक दृष्टिकोण की गहरी अभिव्यक्ति मिलती है, जो भारतीय इतिहास के स्वर्णिम और गौरवमयी कालखंड को सजीव रूप में प्रस्तुत करता है। उनके काव्य में भारतीय संस्कृति के वे तत्व, जैसे आध्यात्मिकता, विश्वबंधुत्व, देशभक्ति, नैतिकता, साहस, संयम, त्याग और बलिदान, प्रमुख रूप से उभरकर आते हैं। भारत के अतीत के गौरव के साथ-साथ उन्होंने भारतीय समाज की विशेषताओं को भी उजागर किया है, जैसा कि उनके प्रसिद्ध काव्य "अरुण यह मधुमय देश हमारा" में दिखता है:
"अरुण यह मधुमय देश हमारा,
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा,
सरस तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरु शिखा मनोहर,
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुम सारा।"
जयशंकर प्रसाद की रचना 'कामायनी' जीवन दर्शन का एक अद्वितीय उदाहरण है। यह कविता न केवल कवि की काव्यात्मक उपलब्धि का प्रतीक है, बल्कि यह विश्व साहित्य में अपनी विशिष्टता के लिए भी प्रसिद्ध है। कामायनी में प्रसाद जी ने प्रतीकात्मकता के माध्यम से मानव के मनोवैज्ञानिक विकास को प्रस्तुत किया है और श्रद्धा तथा बुद्धि के संतुलित समन्वय द्वारा जीवन दर्शन की गहरी पहचान दी है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि मानव जीवन में आनंद की प्राप्ति तब ही संभव है जब हृदय और बुद्धि का संतुलन बना रहे। इस विचार के माध्यम से वे यह भी कहते हैं कि अत्यधिक भावुकता या केवल तर्कशीलता से जीवन में आनंद की प्राप्ति असंभव है। उनके अनुसार, आधुनिक मानव के दुख का एक प्रमुख कारण उसकी इच्छा, क्रिया और ज्ञान में सामंजस्य की कमी है।
प्रसाद जी ने पीड़ित व्यक्ति की भावनाओं का अत्यंत सुंदर और गहन चित्रण किया है, जो उनके काव्य में एक अनमोल धरोहर के रूप में विद्यमान है। वे प्रेम और आनंद के प्रखर चित्रकार माने जाते हैं, और उनके काव्य में प्रेम के वियोग पक्ष तथा मिलन के पक्ष दोनों ही अत्यंत प्रकट रूप में उपस्थित हैं। कानन कुसुम में प्रसाद ने न केवल प्रेम की विविध भावनाओं का चित्रण किया, बल्कि अनुभूति और अभिव्यक्ति के नए आयामों की खोज की है।
जयशंकर प्रसाद की कविताओं में जीवन के विविध पहलुओं का चित्रण मिलता है, जिसमें प्रेम, सौंदर्य, दर्शन, प्रकृति, देशप्रेम और धर्म जैसे विषयों का समावेश है। उनकी काव्य कला पूर्ण रूप से सशक्त और संतुलित है, जिसमें भाषा, शैली, अलंकरण और छंद योजना का व्यवस्थित उपयोग हुआ है। प्रसाद जी का साहित्य न केवल हिंदी कविता का अभिन्न हिस्सा है, बल्कि वह भारतीय सांस्कृतिक धारा का महत्वपूर्ण स्तंभ भी है, जिसे हर युग में सम्मान और प्रेरणा के रूप में देखा जाता है।

संदर्भ :-
1. जयशंकर प्रसाद, रमेशचंद्र शाह, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 1979, पृष्ठ संख्या 19महाकवि प्रसाद और लहर, डॉक्टर गोविंदलाल छाबड़ा, आदर्श साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1973, पृष्ठ संख्या – 15
2. प्रसाद जी की कला, सं. गुलाब राय, साहित्य रत्न भंडार, आगरा, पृष्ठ संख्या – 3
3. वही, पृष्ठ संख्या – 12
4. महाकवि प्रसाद और लहर, डॉक्टर गोविंदलाल छाबड़ा, आदर्श साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1973, पृष्ठ संख्या - 10
5. महाकवि प्रसाद और लहर, डॉक्टर गोविंदलाल छाबड़ा, आदर्श साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1973, पृष्ठ संख्या- 9
6. वही, पृष्ठ संख्या - 11
7. प्रसाद निराला अज्ञेय, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, 2014, पृष्ठ संख्या 34
8. जयशंकर प्रसाद, रमेशचंद्र शाह, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 1979, पृष्ठ संख्या 20
9. वही, पृष्ठ संख्या – 12

Keywords

.

 

. . .

Citation

जयशंकर प्रसाद: साहित्यिक यात्रा में जीवन संघर्ष, कलात्मक अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक पुनर्जागरण. कौशल कुमार शर्मा. 2025. IJIRCT, Volume 11, Issue 1. Pages 1-6. https://www.ijirct.org/viewPaper.php?paperId=2502072

Download/View Paper

 

Download/View Count

3

 

Share This Article