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Publication Number

2501076

 

Page Numbers

1-3

Paper Details

सूरदास के हिंदी साहित्य की सांस्कृतिक झलकियाँ

Authors

Gopal Lal Dheru

Abstract

सूरदास जी का स्थान कृष्णभक्ति काव्य के शिखर पर स्थापित है। उनकी रचनाओं में श्रीकृष्ण के बालरूप का ऐसा अद्भुत और मनोहारी चित्रण मिलता है कि पाठक इन चित्रों में खो जाता है। श्रीकृष्ण के बाल्यकाल की एक-एक झलक सूरदास ने इस प्रकार प्रस्तुत की है कि वे दृश्य पाठकों के मनोमस्तिष्क में जीवंत हो उठते हैं। कहा जाता है कि सूरदास को माता यशोदा के हृदय का गहरा अनुभव हुआ था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी कहा है, "सूर अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं।"
सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के बालरूप के माध्यम से वात्सल्य के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का ऐसा प्रभावशाली चित्रण किया है कि उनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य में अद्वितीय स्थान प्राप्त करती हैं। उनके पदों में शिशु श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का ऐसा मनोहारी वर्णन मिलता है कि हर माता-पिता अपने बच्चों के साथ उस वात्सल्य को महसूस कर सकते हैं। माता यशोदा के वात्सल्य और श्रीकृष्ण की बाल चेष्टाओं का यह अनूठा संगम पाठकों के हृदय को गहराई तक स्पर्श करता है।
सूरदास के वात्सल्य काव्य में शिशु मनोविज्ञान की अद्भुत समझ दिखाई देती है। उन्होंने शिशु के भोलेपन, चंचलता, और मातृ-पुत्र के गहरे स्नेह को इतनी स्वाभाविकता और सरलता से प्रस्तुत किया है कि यह काव्य केवल धार्मिक या भक्ति साहित्य का हिस्सा नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं का अमूल्य दस्तावेज बन गया है।
उनकी रचनाओं में बालकृष्ण के मुख पर मक्खन, घुटनों के बल चलने की चेष्टा, और मिट्टी से सने शरीर का ऐसा सजीव चित्रण है कि यह दृश्य पाठकों के हृदय में गहरे अंकित हो जाते हैं। सूरदास के वात्सल्य प्रेम में केवल श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन नहीं है, बल्कि उन्होंने एक माँ के हृदय की हर भावना—स्नेह, चिंता, उल्लास, और विछोह—को भी बड़ी कुशलता से शब्दों में ढाला है।
सूरदास की काव्य रचनाएँ न केवल भक्तिकालीन साहित्य की अमूल्य निधि हैं, बल्कि वे मातृत्व और बालपन के आदर्श रूप को भी रेखांकित करती हैं। उनकी शब्दावली, भावों की गहनता, और बालक श्रीकृष्ण की लीलाओं का सजीव चित्रण भारतीय साहित्य को न केवल समृद्ध करता है, बल्कि उसे विश्व साहित्य में भी विशिष्ट स्थान दिलाता है। इसीलिए सूरदास का वात्सल्य प्रेम भारतीय भक्ति काव्य में एक अनुपम रत्न की भाँति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाठकों और श्रोताओं को सम्मोहित करता रहा है।
मुख्य शब्द: वात्सल्य, माता यशोदा, श्रीकृष्ण, कृष्णभक्ति, बालरूप, कल्पनाशीलता, भक्ति परंपरा
परिचय
सूरदास जी का नाम कृष्णभक्ति की अनवरत प्रवाहित धारा में सर्वोपरि स्थान रखता है। भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त और ब्रजभाषा के अद्वितीय कवि महात्मा सूरदास हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। उनकी रचनाओं ने न केवल हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि भक्ति काव्य की परंपरा को भी अनमोल योगदान दिया। सूरदास ने वात्सल्य, शृंगार, और शांति जैसे रसों को अपनी काव्य साधना का माध्यम बनाया। सूरदास ने अपनी विलक्षण प्रतिभा और गहन कल्पनाशीलता से बालक श्रीकृष्ण के रूप और उनकी लीलाओं का ऐसा सरस और सजीव वर्णन किया है, जो अद्वितीय है। उनकी कविताओं में बालक कृष्ण की चपलता, उनकी सहज स्पर्धा, उनकी बाल सुलभ अभिलाषाओं और आकांक्षाओं का बेजोड़ चित्रण मिलता है। इन बाल लीलाओं के वर्णन में सूरदास की सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता और गहरी मनोवैज्ञानिक दृष्टि स्पष्ट झलकती है।
सूरदास ने अपने काव्य का विस्तार जीवन के विविध पहलुओं तक न करते हुए वात्सल्य और शृंगार तक सीमित रखा, लेकिन इसी सीमित दायरे में उन्होंने उत्कृष्टता की नई ऊंचाइयों को छुआ। सूरदास का वात्सल्य वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, "बाल सौंदर्य और स्वभाव के चित्रण में जितनी सफलता सूर को मिली है, उतनी किसी अन्य को नहीं। वे अपनी बंद आंखों से वात्सल्य का कोना-कोना झांक आए हैं।"
सूरदास की रचनाओं में भक्ति, प्रेम और भावों की जो गहराई है, वह उन्हें हिन्दी साहित्य के शिखर पर स्थापित करती है। उनकी कविताएं आज भी साहित्य प्रेमियों को मोहित करती हैं और भारतीय भक्ति परंपरा को सजीव बनाए रखती हैं।
सूरदास के वात्सल्य वर्णन में स्वाभाविकता, विविधता, रमणीयता और मार्मिकता का अद्भुत संगम है, जो इन चित्रणों को अत्यंत हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी बनाता है। उनकी रचनाओं में यशोदा के माध्यम से मातृत्व का ऐसा सजीव और मोहक चित्र उभरता है, जिसे साहित्य में अनुपम कहा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सूरदास स्वयं माता यशोदा का रूप धरकर बालकृष्ण की बाल-लीलाओं का साक्षात अनुभव कर रहे हों। किसी ने ठीक ही कहा है कि सूरदास को मानो यशोदा के हृदय का प्रत्यक्ष अनुभव था।
सूरदास ने वात्सल्य के दोनों पक्षों—संयोग और वियोग—का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण किया है। संयोग पक्ष में उन्होंने एक ओर बालकृष्ण की अद्वितीय रूप माधुरी का वर्णन किया है, तो दूसरी ओर उनकी बालसुलभ चेष्टाओं का मार्मिक और मनोहारी चित्र खींचा है। उनकी बाल छवि और चेष्टाओं का वर्णन इस प्रकार है:
“हरिजू की बाल छवि कहौं बरनि,
सकल सुख की सींव कोटि मनोज सोभा हरनि।।”
सूरदास द्वारा वर्णित यशोदा के गीत किसी भी मां के अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य का सजीव प्रतीक हैं। जब यशोदा श्रीकृष्ण को पालने में सुलाती हैं और लोरी गाती हैं, तो वह दृश्य वात्सल्य का चरम रूप दर्शाता है:
“जसोदा हरि पालने झुलावे,
हलरावे दुलराई मल्हावे, जोई सोई कछु गावे।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुवावे।।”
मां की लोरी सुनकर कृष्ण कभी अपनी पलकों को मूंद लेते हैं, तो कभी अपने होठों को फड़काते हैं। सूरदास ने श्रीकृष्ण के शैशव, बाल्यावस्था, और किशोरावस्था का वर्णन विलक्षण सौंदर्यानुभूति के साथ किया है। उनके बाल्यकाल की चेष्टाओं जैसे घुटनों के बल चलने, मुख पर मक्खन और दही लगाने, और मिट्टी में लिपटे हुए शरीर का चित्रण मन को मोह लेता है:
“सोभित कर नवनीत लिए,
घुटुरूनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए।।”
सूरदास ने न केवल बालकृष्ण की चेष्टाओं का चित्रण किया, बल्कि बालकों की मनोवृत्ति और उनके कोमल भावों को भी बखूबी उकेरा है। बालकों की हठ, तर्क, और भोलेपन का चित्रण उनकी कविताओं में जीवंत हो उठता है। जैसे, कृष्ण अपनी मां से पूछते हैं:
“मैया, कबहिं बढ़ेगी चोटी?
किती बार माहि दूध पिबत है, यह अजहूं है छोटी।।”
सूरदास के वात्सल्य वर्णन की विशेषता उनके मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण में है। उन्होंने माता यशोदा के हृदय की कोमल भावनाओं को इस तरह व्यक्त किया है कि वे चिरंतन सत्य बन गई हैं। जब श्रीकृष्ण मथुरा के लिए प्रस्थान करते हैं, तो यशोदा का विह्वल हृदय उनकी अनुपस्थिति का गहन दर्द अनुभव करता है। वह देवकी को संदेश भेजकर पुत्र की देखभाल की याचना करती हैं:
“संदेसो देवकी सों कहियो,
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करति ही रहियो।”
सूरदास ने वात्सल्य के माध्यम से नारी के मातृत्व की महिमा को स्थापित किया है। उनकी रचनाओं में केवल बाल-लीलाओं का वर्णन नहीं, बल्कि बालकों की मानसिक प्रवृत्ति और भावनाओं का भी गहन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदास के वात्सल्य वर्णन की प्रशंसा करते हुए लिखा है:
"आगे होने वाली श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियां सूर की जूठी सी जान पड़ती हैं।"
इस कथन के माध्यम से उन्होंने सूरदास के काव्य में वात्सल्य रस की श्रेष्ठता और उसकी मौलिकता को रेखांकित किया है। सूरदास का वात्सल्य वर्णन केवल उनकी रचनाओं की सजावट नहीं है, बल्कि यह उनके कवि-हृदय की गहराई और उनकी भक्ति की प्रगाढ़ता का प्रमाण है। उनकी कविताओं में वात्सल्य रस इतने सहज और स्वाभाविक रूप में प्रवाहित होता है कि यह हर पाठक के हृदय को स्पर्श करता है।
सूरदास के काव्य में बालकृष्ण के बाल्य रूप का वर्णन केवल धार्मिक अथवा पौराणिक दृष्टिकोण से सीमित नहीं है; यह मानवीय भावनाओं और विशेष रूप से मातृत्व की कोमलता को भी नए आयाम प्रदान करता है। उनकी रचनाओं में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के माध्यम से जीवन के सरलतम रूपों का ऐसा सजीव चित्रण मिलता है, जो पाठक को उनके समय और समाज से जोड़ देता है। सूरदास की कविताएं न केवल एक भक्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी विशेष अध्ययन की मांग करती हैं। उनका वात्सल्य वर्णन यह भी दर्शाता है कि प्रेम और भक्ति का सबसे विशुद्ध रूप केवल निष्काम और निस्वार्थ भावनाओं में ही निहित है। सूरदास ने अपने काव्य के माध्यम से मातृत्व की महानता और वात्सल्य की पवित्रता को अमर कर दिया है। उनके काव्य में वात्सल्य प्रेम केवल साहित्य का एक रस मात्र नहीं है, बल्कि यह जीवन का एक ऐसा अनिवार्य सत्य बनकर प्रकट होता है, जो हर युग में प्रासंगिक रहेगा।
निस्संदेह, सूरदास वात्सल्य के सम्राट हैं, और उनका वात्सल्य वर्णन हिंदी साहित्य की ऐसी अनुपम निधि है, जिस पर गर्व किया जा सकता है। यह काव्य रस केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह आत्मा की शांति, प्रेम की पराकाष्ठा और जीवन की सच्ची अनुभूतियों का दर्पण है। सूरदास ने अपनी रचनाओं से यह सिद्ध कर दिया कि वात्सल्य प्रेम भक्ति का वह रूप है, जिसमें न केवल ईश्वर और भक्त का संबंध प्रकट होता है, बल्कि जीवन के सबसे सुंदर और कोमल पहलू भी उजागर होते हैं।

Keywords

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Citation

सूरदास के हिंदी साहित्य की सांस्कृतिक झलकियाँ. Gopal Lal Dheru. 2025. IJIRCT, Volume 11, Issue 1. Pages 1-3. https://www.ijirct.org/viewPaper.php?paperId=2501076

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