contact@ijirct.org      

 

Publication Number

2501070

 

Page Numbers

1-6

Paper Details

छायावादी कवियों में राष्ट्रीय चेतना के स्वर और राष्ट्रीय जागरण

Authors

Shyam Bihari Nayak

Abstract

भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में 1918 से 1936 का कालखंड जनांदोलनों और सामाजिक सहभागिता का सजीव समय था। इस अवधि में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, और सुभाषचंद्र बोस जैसे राष्ट्रवादी नेताओं का प्रभाव जनमानस पर गहराई से अंकित था। ऐसे समय में जब स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था और हर वर्ग में राष्ट्रीयता का जागरण हो रहा था, साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। साहित्यिक दृष्टि से यह काल छायावाद की प्रमुखता का समय था। छायावाद को अक्सर एक ऐसा काव्य-आंदोलन माना गया, जिसमें कवि व्यक्तिगत और आंतरिक अनुभूतियों को अधिक महत्व देते थे और यथार्थ के बजाय वायवीय और कल्पनाशीलता में रमते दिखाई देते थे।
इस धारणा के विपरीत, इस शोध का उद्देश्य यह विश्लेषण करना है कि क्या छायावादी कवियों के काव्य में तत्कालीन राजनीतिक हलचलों और सामाजिक आंदोलनों का कोई प्रभाव परिलक्षित होता है। क्या उनके साहित्य में राष्ट्रीय चेतना और स्वतंत्रता आंदोलन की भावना को पढ़ा जा सकता है, या यह वास्तव में व्यक्तिगत अनुभूतियों और कल्पनाओं तक सीमित था? यह शोध इस पर भी प्रकाश डालता है कि किस प्रकार छायावाद के कवियों ने अपनी रचनाओं में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से राष्ट्रीय चेतना को स्वर दिया। भले ही उनकी काव्य-शैली को वायवीय और कल्पनाशीलता से ओतप्रोत माना जाता हो, परंतु उनके साहित्य में देशभक्ति, स्वतंत्रता की आकांक्षा, और सामाजिक पुनरुत्थान की झलकें स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। इस अध्ययन के माध्यम से छायावादी कवियों के सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों से उनके संबंध को समझने का प्रयास किया गया है। इससे यह स्पष्ट होगा कि छायावादी साहित्य केवल व्यक्तिगत भावनाओं तक सीमित नहीं था, बल्कि उसमें तत्कालीन समाज और राजनीति की गूंज भी सुनाई देती थी।


मुख्य शब्द: छायावाद, राष्ट्रीय चेतना राजनीति, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस,


प्रस्तावना
द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता और स्थूलता से विद्रोह करते हुए जिस काव्यधारा का जन्म हुआ, वह छायावाद के रूप में विकसित हुई। 1918 से 1936 ई. तक का यह काल भारतीय साहित्य में छायावाद के उत्कर्ष का समय माना जाता है। छायावाद के चार स्तंभों—जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला,’ सुमित्रानंदन पंत, और महादेवी वर्मा—ने इस आंदोलन को साहित्यिक ऊँचाइयों पर पहुँचाया। इनके अलावा, माखनलाल चतुर्वेदी और मुकुटधर पांडे जैसे अन्य कवि भी इस धारा के महत्वपूर्ण योगदानकर्ता माने जाते हैं। छायावाद ने व्यक्तिगत और आंतरिक भावनाओं, प्रकृति-प्रेम, और सौंदर्य की ओर साहित्य को नई दिशा प्रदान की।
भारतीय साहित्य में राष्ट्रीय चेतना की शुरुआत भारतेन्दु युग से ही हो गई थी और द्विवेदी युग में इसका व्यापक विकास हुआ। इस काल में स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव इतना व्यापक था कि साहित्यकार भी इससे अछूते नहीं रहे। लेकिन प्रश्न यह है कि छायावाद के आगमन के साथ क्या राष्ट्रीय चेतना की कविताएँ समाप्त हो गईं? क्या छायावादी कवियों ने राष्ट्रीय जागरण में योगदान नहीं दिया? क्या साहित्य और राजनीति के बीच का संबंध टूट चुका था? इन प्रश्नों का उत्तर छायावाद के साहित्य में मिलता है।
छायावाद के कालखंड में यह धारणा प्रचलित रही कि कवि मुख्यतः व्यक्तिगत अनुभूतियों और कल्पनाओं में लीन रहते थे। परंतु ऐसा नहीं है कि इस काल में राष्ट्रीय चेतना या सामाजिक सरोकारों पर आधारित कविताएँ नहीं लिखी गईं। छायावादी कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को नई ऊर्जा प्रदान की। उनकी कविताएँ राष्ट्रीयता के साथ-साथ प्रेम, प्रकृति और सौंदर्य की अभिव्यक्ति का अनूठा संगम प्रस्तुत करती हैं।

जयशंकर प्रसाद और राष्ट्रीय चेतना
जयशंकर प्रसाद छायावाद के सबसे प्रमुख कवि माने जाते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, उनकी रचना ‘झरना’ (1918) से ही छायावाद की शुरुआत मानी जाती है। प्रसाद को मुख्यतः प्रेम और धार्मिक भावना का कवि माना गया है, लेकिन यह धारणा उनके साहित्य की व्यापकता के साथ न्याय नहीं करती। उनके साहित्य में ऐतिहासिक और राष्ट्रीय चेतना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
उनके लेखन काल में, जब अंग्रेज भारतीयों को उनकी पहचान और इतिहास से काटने का प्रयास कर रहे थे, प्रसाद ने अपने साहित्य में भारतीय गौरव और इतिहास को पुनः जागृत करने का कार्य किया। उनकी कविताएँ अतीत के गौरवशाली चित्र प्रस्तुत करती हैं। उदाहरण स्वरूप:
“हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार।
ऊषा ने हँसकर अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक।
व्योम-तम-पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।।”
अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा भारतीयों को आर्य-द्रविड़ के विभाजन के माध्यम से उनके स्वाभिमान को तोड़ने का प्रयास किया गया। इस संदर्भ में प्रसाद भारतीयों को अपनी मिट्टी से जोड़े रखने का आह्वान करते हुए लिखते हैं:
“किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं।
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं।।”
प्रसाद की राष्ट्रीयता मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, और माखनलाल चतुर्वेदी से भले ही भिन्न हो, लेकिन उनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना का एक गहरा स्वर विद्यमान है। वे प्रकृति और प्रेम को माध्यम बनाकर जनता को जागृत करते हैं। उनकी कविता ‘बीती विभावरी जाग री’ में प्रकृति का सहारा लेकर आलस्य और निष्क्रियता को त्यागने का आह्वान किया गया है। यह कविता एक प्रकार का सांकेतिक संदेश है, जो राष्ट्रीय चेतना को उभारने का कार्य करती है:
“बीती विभावरी जाग री।
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा-घट ऊषा नागरी।
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का आँचल डोल रहा।
तू अब तक सोयी है आली!
आँखों में भरे विहाग री!”
जयशंकर प्रसाद और अन्य छायावादी कवियों की कविताएँ इस तथ्य का प्रमाण हैं कि छायावाद केवल व्यक्तिगत अनुभूतियों और कल्पनाओं तक सीमित नहीं था। इन कविताओं में निहित राष्ट्रीय चेतना, स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति प्रतिबद्धता, और जनता को जागृत करने का प्रयास स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। छायावाद ने साहित्य को एक नई दिशा दी, जिसमें व्यक्तिगत सौंदर्य और सामाजिक चेतना का अनूठा समन्वय देखने को मिलता है। छायावादी कवियों का योगदान राष्ट्रीय जागरण की दिशा में साहित्यिक प्रयासों का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
उन्होंने न केवल समाज को जागरूक किया, बल्कि जागरूक जनता का मार्गदर्शन भी किया। वे जागृत जनता को स्वतंत्रता संग्राम में आगे बढ़ने और विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं:
‘‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती—
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती—
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है— बढ़े चलो, बढ़े चलो
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के—
रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में— सुबाड़वाग्नि-से जलो।
प्रवीर हो जयी— बनो बढ़े, चलो बढ़े चलो।’’
कवि बार-बार देशवासियों को जागृत करते हुए हमारे गौरवमयी अतीत की याद दिलाते हैं, जिसमें हमने हूण, शक, कुषाण, मुगलों को पराजित किया है। साथ ही, वे देशवासियों को मातृभूमि के गौरव का अहसास कराते हुए यह कहते हैं कि हम वही आर्य संतान हैं जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अतः हमें भी अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र करने के लिए हर पल तैयार रहना चाहिए। उनका मानना था कि किसी व्यक्ति का अस्तित्व तभी तक सुरक्षित रहता है जब तक उसका देश, जाति, साहित्य, और अतीत सुरक्षित है; अन्यथा गुलामों का कोई अस्तित्व नहीं होता। वे लिखते हैं:
‘‘वही है रक्त, वही है देश, वही है साहस, वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान।’’
इस प्रकार छायावादी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के विकास और अतीत के गौरव गान में प्रसाद जी का काव्य अद्वितीय है।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का काव्य संसार विविधताओं से भरा हुआ है। उन्होंने अनेक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है और द्विवेदी युग की परंपरा से कविता को स्वतंत्र करने का श्रेय भी उन्हें ही प्राप्त है। अगर प्रसाद की रचना "झरना" (1918 ई.) को छायावाद का प्रारंभ माना जाता है, तो निराला की कविताओं को इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। उनकी पहली छायावादी कविता "जूही की कली" (1916 ई.) थी। हालांकि निराला केवल छायावादी कविता तक सीमित नहीं थे, उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता का स्वर भी गहरे रूप से समाहित था। वे पूज्य भारतभूमि की वंदना करते हुए लिखते हैं:
‘‘भारत, जय विजय करे!
कनक-शस्य-कमलधरे!
लंका पदतल शतदल,
गर्जितोर्मि सागर-जल
धोता शुचि चरण युगल
स्तवन कर कर बहु-अर्थ-भरे!’’
कवि उन सोए हुए भारतवासियों को जगाते हुए कहते हैं:
‘‘जागो फिर एक बार!
प्यार से जगाते हुए, हार से तारें तुम्हे,
अरुण-पंख, तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार
जागो फिर एक बार।’’
निराला की कविता स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ और भी तीव्र होती जाती है, और वे आंदोलनकारियों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हिंसात्मक पद्धतियों को अपनाने का आह्वान करते हुए कहते हैं:
‘‘सोचो तुम,
उठती है नग्न तलवार जब स्वतंत्रता की
कितने ही भावों से
याद दिलाकर दुःख दारुण परतंत्रता का
फूँकती स्वतंत्रता निज मंत्र से जब व्याकुल कान,
कौन वह सुमेरु रेणु-रेणु जो न हो जाय।’’
कवि ने राम-रावण युद्ध को आधार बनाकर "राम की शक्ति पूजा" नामक लंबी कविता लिखी है, जिसमें वे आंदोलनकारियों को शक्ति संग्रह और सामूहिकता का पाठ पढ़ाते हुए विजय का विश्वास दिलाते हैं:
‘‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!
कह महाशक्ति राम के वंदन में हुई लीन।’’
निराला की राष्ट्रीय चेतना अन्य छायावादी कवियों से उग्र और क्रांतिकारी भावना से युक्त थी, क्योंकि वे केवल की स्तुति ही नहीं करते थे, बल्कि राष्ट्र की समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए लगातार प्रयत्नशील रहते थे। वे न केवल स्वतंत्रता का अमर गान प्रस्तुत करते थे, बल्कि स्वतंत्रता को बचाए रखने की चेतावनी भी देते थे।
सुमित्रानंदन पंत, जिन्हें प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में जाना जाता है, उनके काव्य में प्रकृति का बेहद सुंदर और मनोरम वर्णन मिलता है, जो शायद ही किसी अन्य हिंदी कवि की कविताओं में हो। पंत प्रकृति के वर्णन, सांदर्य चित्रण, और दार्शनिक रहस्यों में अपनी काव्य की सार्थकता मानते थे। हालांकि समय के साथ पंत की कविताओं में भी परिवर्तन आया, और वे स्वतंत्रता तथा राष्ट्र जागरण की कविताओं की ओर अग्रसर हुए। वे स्वतंत्रता के पुजारियों द्वारा पूजित भारतमाता के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखते हैं:
‘‘गौरव भाल हिमालय उज्ज्वल
हृदय हार गंगा जल,
विंध्य श्रोणिवत, सिन्धुचरण नत
महिमा शतमुख गाता!’’
राष्ट्रीय जागरण और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, कवि अपनी कविताओं में गांधीजी के अहिंसात्मक विचारों से गहरे प्रभावित थे, और यह प्रभाव उनके लेखन में अंत तक स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनका विश्वास था कि केवल अहिंसा और महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में ही देश को स्वतंत्रता मिल सकती है। यह विचार उनके स्वाभाविक प्रेम से जुड़ा था, क्योंकि वे प्रकृति के प्रति अत्यधिक अनुराग रखते थे। पंत जी बापू के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए इस प्रकार लिखते हैं:
"तुम माँस-हीन, तुम रक्त-हीन,
हे अस्थि-शेष! तुम अस्थि-हीन,
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!"
यह कविता गांधीजी के अद्वितीय दिव्य रूप का बखान करती है, जिसमें वह व्यक्ति मात्र नहीं, बल्कि भारतीय जीवन और संस्कृति की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। पंत के विचारों में यह दृढ़ विश्वास था कि किसी भी राष्ट्र के विकास और सफलता के लिए हर एक नागरिक की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है।
भारत माता की छवि को उन्होंने ग्रामवासिनी के रूप में प्रस्तुत किया, यह दर्शाते हुए कि भारतीय समाज की सशक्त नींव ग्राम समाज में ही निहित है। पंत जी ने भारत माता के स्वतंत्रता संघर्ष की झलक इन शब्दों में व्यक्त की:
"भारत माता
ग्राम वासिनी!
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला-सा आँचल
गंगा यमुना में आँसू जल
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी!"
यह कविता भारतीय ग्रामीण समाज की पीड़ा और संघर्ष को दर्शाती है, और इस भावनात्मक चित्रण के माध्यम से पंत ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए ग्रामीण समुदाय की एकता और समर्पण अत्यंत महत्वपूर्ण है।
पंत जी की कविताएँ स्वतंत्रता संग्राम के सशक्त संदेशवाहक के रूप में उभरीं। वे स्वतंत्र भारत का चित्रण करते हुए और स्वतंत्रता संग्रामियों को प्रेरित करते हुए लिखते हैं:
"मैं नव मानवता का संदेश सुनाता
स्वाधीन लोक की गौरव गाथा गाता
मैं मनः क्षितिज के पार मौन शाश्वत की
प्रज्ज्वलित भूमि का ज्योति वह वन आता।"
हालाँकि पंत के काव्य में राष्ट्रवाद का मुख्य स्वर न होते हुए भी उनकी कविताओं में अभिव्यक्त किए गए विचारों में उस समय के सामाजिक और राष्ट्रीय संघर्ष का गहरा प्रभाव था।
महादेवी वर्मा, छायावादी कवियों में एकमात्र महिला स्तंभ, अपने कविताओं में भले ही स्पष्ट राष्ट्रवाद की झलक न देती हों, परंतु उनके काव्य में अध्यात्म के सूक्ष्म तत्वों का चित्रण भारत की संस्कृति और अस्तित्व के संघर्ष से जुड़ा हुआ था। उनकी कविता ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ और ‘फिर विकल है प्राण मेरे’ में यह गहरी आस्था व्यक्त की गई है कि अध्यात्म ही वह शक्ति है, जिसने भारतीय संस्कृति को बाहरी आक्रमणों से बचाया और मजबूत किया।
निष्कर्ष स्वरूप, हम देख सकते हैं कि छायावादी कवि न केवल अपने कल्पनालोक में, बल्कि समाज की जमीनी हकीकत से भी जुड़े हुए थे। उनका काव्य राष्ट्रीय जागरण से जुड़ा हुआ था, चाहे उनका स्वर राष्ट्रवादियों से भिन्न क्यों न था। इस संदर्भ में डॉ. नगेंद्र का कहना है: "छायावाद का दुर्भाग्य ही था कि उसे ठीक-ठाक सहृदयता से समझने का प्रयास नहीं किया गया। छायावाद मूलतः स्वानुभूति की कविता है। स्वानुभूति ही उसका उद्गम क्षेत्र है।"
यह स्वानुभूति उस समय की सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों का जीवंत प्रमाण है, जो स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए लड़ा जा रहा था।

Keywords

छायावाद, राष्ट्रीय चेतना राजनीति, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस,

 

. . .

Citation

छायावादी कवियों में राष्ट्रीय चेतना के स्वर और राष्ट्रीय जागरण. Shyam Bihari Nayak. 2025. IJIRCT, Volume 11, Issue 1. Pages 1-6. https://www.ijirct.org/viewPaper.php?paperId=2501070

Download/View Paper

 

Download/View Count

17

 

Share This Article