contact@ijirct.org      

 

Publication Number

2307005

 

Page Numbers

1-6

Paper Details

राजस्थान के परम्परागत जल स्त्रोतों का समीक्षात्मक अध्ययन

Authors

Nihal Singh Bairwa

Abstract

राजस्थान एक ऐसा क्षेत्र है जहां वर्ष भर बहने वाली नदियों का उद्भव नहीं होता है। यहाँ पानी से सम्बन्धित समस्याएँ बहुत ही बड़े पैमाने पर हैं। जो कि अनियमित वर्षा और नदियों में अपर्याप्त पानी को लेकर उत्पन्न होती हैं। राजस्थान भारत का संकट ग्रस्त प्रदेष है, जहां पर पीने का पानी लाने के कई मीलों तक महिलाओं को यात्रा करनी पड़ती है। यहाँ केवल 1 प्रतिषत पानी ही उपलब्ध है।

सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ‘ऋग्वेद‘ के काल से जल को पंच महाभूतों में सम्मिलित किया गया है। अर्थात् मानव जीवन का सृजन करने वाले पंच महाभूतों में से एक जल को माना गया। देवताओं ने जिस अमृत पेय की कल्पना की थी, सम्भवतः वह जल ही है क्योंकि इसके बिना जीवन सम्भव नहीं है। इसलिए कहा गया है कि ’’जल है तो जीवन है।’’ इत्यादि उपमाओं का श्रृंगार किया गया है। ऐसे अमृत पेय का, जो प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है, परन्तु सीमित मात्रा में है, हम निर्ममता से जल दोहन कर रहे हैं। बिना विचारे अपव्यय कर रहे हैं। जड़ व्यक्ति की भांति उसमें तरह-तरह के रसायन तथा गन्दगी मिला रहे हैं। यद्यपि जल में एक सीमित मात्रा तक अपना परिषोधन करने की षक्ति है। इसके पष्चात् जल पूर्णतः मानव एवं समस्त जगत के लिए विष के समान हो जाता है। परन्तु जल में हमारे असीमित दुर्व्यवहार को झेलने की षक्ति नहीं है। फलस्वरूप वे नदियाँ जिनकी कल-कल धारायें सृष्टि की अनंतता की परिचायक थी।

शब्दकोशः परम्परागत जल स्त्रोत, जल दोहन, उपमाओं का श्रृंगार, अमृत पेय।

प्रस्तावना:-
वर्तमान में अपने स्वरूप व षुद्वता को खोकर अस्तित्व का संघर्ष कर रही हैं। हमारे अत्याचारों व अंधविष्वासों ने उनमें इतना अधिक विष घोल दिया है कि उन नदियों के आस-पास के क्षेत्र का भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है। यदि षीध्र ही हम नहीं चेते तो अपनी भावी पीढ़ी को सती अनुसुइया की भांति यह आषीर्वाद नहीं दे सकेंगें-
’’अचल रहे अहिवात तुम्हारा, जब तक गंग जमुन जल धारा’’।
अर्थात् यह सृष्टि तब तक ही है, जब तक गंगा व जमुना में जल धारा हैं प्रस्तुत षोध एक छोटा सा प्रयास है जो कलयुग में गंगा व अन्य नदियाँ तथा जल को पृथ्वी पर बचा सके। जिसमें विभिन्न स्त्रोतों से विचारों का एक संग्रह है जिसमें सभी क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है। जल के बिना भविष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जल ना केवल महत्वपूर्ण तत्व है, बल्कि प्राणी जगत के लिए जीवन दाता भी है। यही षोध में प्रस्तुत किया गया है जिसमें परम्परागत स्त्रोतों से लेकर वर्तमान की परिस्थितियों का विस्तार पूर्वक उल्लेख है।
जल को बचाना, उसका उचित उपयोग तथा उपलब्ध जल को षुद्ध बनाये रखने के प्रयासों का वर्णन किया गया है एवं इसी का षोधार्थी के षोध कार्य में प्रस्तुतीकरण है।
जयपुर जिले के परम्परागत जल स्त्रोत:-
यहां प्रकृति और संस्कृति एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सन् 1979 और 1990 में राजस्थान के कुछ इलाकों में भारी बारिष हुई थी, जिससे लूनी नदी में बाढ़ आने से राज्य को काफी हानि पहुंची थी। परन्तु 1979 में क्षति और भी हो सकती थी। अगर स्थानीय लोगों ने संदेष देने की प्राचीन पद्धति, जिसमें ढोलों का प्रयोग किया जाता था, का सहारा न लिया होता। जिन क्षेत्रों में यह व्यवस्था लुप्त हो चुकी थी वहां काफी हानि पहुंची थी। इसलिए प्रदेष को आज परम्परागत विधियों से जल स्त्रोतों का संरक्षण करने की सख्त आवष्यकता है।
राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में लोकथाएँ और पौराणिक गाथाएँ काफी महत्वपूर्ण हुआ करती हैं। राजस्थान में पानी के लगभग सभी प्राकृतिक स्त्रोतों जैसे झरने, बावड़ियाँ, जोहड़, टांका इत्यादि की उत्पत्ति के बारे में पौराणिक किस्से हैं। बाणगंगा नदी की उत्पत्ति उस स्थान से मानी गई है, जहां पर पांडव किसी न किसी समय रहा करते थे। हमारे प्रदेष में जल स्त्रोतों का बहुत ही धार्मिक महत्व है। जिसको षोध कार्य में वर्णित किया गया है।
ऐसा कहा गया है कि अर्जुन ने धरती में तीर मारकर पानी बाहर निकाला था। जिस जगह पर भीम ने अपना पैर जमीन पर धंसाकर पानी के फव्वारे को बाहर निकाला था उसे भीम गदा के नाम से जाना जाता है। यह स्थान राजस्थान राज्य के अलवर जिले के विराटनगर कस्बे में स्थित है। षुष्क क्षेत्रों में पानी इतनी कम मात्रा में उपलब्ध होता है कि किसी भी प्राकृतिक स्त्रोत की पूजा वहाँ षुरू हो जाती है। कई जगहों पर तो पानी के प्राकृतिक स्त्रोत तीर्थ स्थल भी बन गए हैं। जो षेष बचे हुए है, वहां पर संरक्षण की आवष्यकता है। जिससे भावी पीढ़ी को प्राचीन जल स्त्रोतों के दर्षन हो सकें।
स्थानीय लोगों ने पानी के कई कृत्रिम स्त्रोतों का निर्माण किया है। राजस्थान में पानी के कई पारम्परिक स्त्रोत हैं, जैसे-नाड़ी, तालाब, जोहड़, बंधा, सागर, और सरोवर इत्यादि प्रमुख हैं। गांव का कोई व्यक्ति जब ’नाड़ी’ की बात करता है, तो जल संरक्षण का छोटा सा प्रयास हमारे लिए होता है। जल संरक्षण द्वारा किये गये प्रयास से उसके बारे में स्पष्ट जानकारी होती है। जैसे नाड़ी में पानी कैसे जमा होता है, किस तरह इसका आगोर तैयार किया जाता है। ग्रामवासी यह भी जानता है कि नाड़ी का निर्माण किस मृदा से किया जाता है। नाड़ी के निर्माण के लिए खुदाई एक विषेष तरीके से की जाती है जो कि लम्बे समय तक सुरक्षित रहती है। राजधानी क्षेत्र जयपुर इसका एक उत्तम उदाहरण है।
’सिंधी’ पाकिस्तान सीमा के निकट स्थित एक गंाव है। यहां पिछले कई वर्षो से वर्षा नहीं हुई है। इस गांव में भेड़ों की कुल संख्या 30,000 से भी ज्यादा है। चूंकि इस गांव में पार की व्यवस्था काफी अच्छी है, इसलिए इन भेड़ों को घास एवं पानी के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। जीवनयापन की दषाओं में जल एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है जो कि किसी भी स्थिति में पारिस्थितिकी संतुलन का कार्य करता है।
राजस्थान के लोग पारम्परिक तौर पर राज्य को दो हिस्सों में बांटते हैं। एक जिसमें ’पालर’ पानी मिलता है और दूसरा, जहां बाकर पानी प्राप्त होता है। वर्षा से प्राप्त जल ही पालर जल है जो प्राकृतिक पानी का सबसे षुद्ध रूप है और जिसे टांके में तीन से पांच वर्ष तक के लिए जमा किया जा सकता है। टांका राजस्थान में प्रत्येक घर में हुआ करता था। जिससे जल की स्थानीय आवष्यकता की पूर्ति की जाती है। बाकर भूजल को कहते हैं। इसमें कई प्रकार के तत्व मिले होते हैं। पालर पानी में उगने वाली फसलें बाकर पानी में उगने वाली फसलों से बिल्कुल भिन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त इनको रोकने का समय और सिंचाई की व्यवस्था भी एक-दूसरे से अलग होती है। राजस्थान में यह दोनों ही विधियाँ प्राचीनकाल से ही प्रचलन में हैं।
पानी के उचित प्रबन्ध हेतु पष्चिमी राजस्थान में आज भी पराती (लोहे का बड़ा बर्तन) में चौकी रखकर उस पर बैठकर स्नान करते हैं ताकि षेष बचा पानी अन्य घरेलू उपयोग में आ सके। जयपुर जिले में निम्नलिखित जल संरक्षण स्त्रोत हैं।
ऽ बावड़ी:-
जयपुर जिले में कुआं व सरोवर की भांति बावड़ी निर्माण की परम्परा अति प्राचीन है। यहाँ पर हड़प्पा युग की संस्कृति में बावड़ियाँ बनाई जाती थी। प्राचीन षिलालेखों में बावड़ी निर्माण का उल्लेख प्रथम षताब्दी से मिलता है। जो कि प्राचीन से भी पुराना माना गया है। विष्वकर्मा वास्तुषास्त्र से बावड़ी निर्माण की जानकारी मिलती है। अपराजित पृच्छा के 74वें अध्याय में बावड़ियों के चार प्रकार बताये गये हैं। प्राचीन काल में अधिकांष बावड़ियाँ मन्दिरों के सहारे बनी हैं। जिससे सभी धार्मिक श्रृदालु स्नानकर पूजा-पाठ करते थे तथा अपने सुखद एवं मंगलमय जीवन की कामना करते थे। इसका उदाहरण आभानेरी (दौसा) में हर्षत माता मन्दिर के साथ बनी चांद बावड़ी है।
बावड़ियाँ और सरोवर प्राचीनकाल से ही पीने के पानी एवं सिंचाई के महत्वपूर्ण जलस्त्रोत रहे हैं। आज की तरह जब घरों में नल अथवा सार्वजनिक हैंडपम्प नहीं थे तो गृहणियाँ प्रातःकाल एवं सायंकाल कुएं, बावड़ी अथवा सरोवर से ही पीने का पानी लेने जाया करती थीं।
आज भी कई गांवों में जहां जलप्रदाय योजनाएँ नहीं हैं, वहाँ पनघट पर नजारा देखा जा सकता है। ये गृहणियाँ अपने सिर पर रखी कलात्मक इंडियों पर दो-तीन घड़े रखकर पानी भरने जाया करती हैं। इस दौरान वे आपस में घर-गृहस्थी की बातचीत भी कर लिया करती हैं और जब मन तरंगित हुआ तो सुरीले गीतों की स्वर लहरियाँ भी उनके कंठ से कूट पड़ती है।
यही राजस्थान की संस्कृति का असली अहसास है। इन लोकगीतों में एक ओर जहाँ श्रृंगारिक वर्णन, मनोदषा और तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण होता है। वहीं पानी भरकर लाने में उत्पन्न व्यवधानों का वर्णन होता है जो आपसी सुख-दुख का परिचायक है।
राजस्थान में बावड़ी निर्माण का मुख्य उद्देष्य वर्षा जल का संचय रहा है। आरम्भ में ऐसी बावड़ियाँ हुआ करती थी जिनमें आवासीय व्यवस्था भी थी। राजकाज में सारे कार्य इनके जल द्वारा ही संभव हो पाते हैं।
कालिदास ने रघुवंष में षातकर्णि ऋषि के एक क्रीड़ा बावड़ी का मनोहारी उल्लेख किया है। मेघदूत में भी कालिदास ने यक्ष द्वारा अपने घर बावड़ी निर्माण का सुन्दर वर्णन किया है। राजस्थान में इन प्राचीन बावड़ियों की वर्तमान में दषा अच्छी नहीं है। यदि समय रहते इनका जीर्णोेद्वार कर दिया जाये तो ये बावड़ियाँ भयंकर जल संकट का समाधान बन सकती हैं। हालांकि राजस्थान सरकार का पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग इनके संरक्षण का कार्य करता है।
जयपुर जिले में आगरा रोड पर भंडारो ग्राम में बडी बावडी स्थित है, जिसका निर्माण ठाकुर दिलीप सिंह दौलतिया ने एक रात में करवाया था। इसके अलावा जग्गा बावडी एवं पन्ना मीना की बावडी, आमेर प्रमुख हैं। पन्ना मीना की बावडी में एक ओर जयगढ दुर्ग व दूसरी ओर पहाडों की नैसर्गिक सुन्दरता है।
ऽ कुआं:-
कुआं राजस्थान के लोगों के कौषल का एक और उदाहरण है। कुआं जिन्हें कहीं-कहीं गहरी बेरी भी कहा जाता है, इसमें पानी की बर्बादी कम से कम हो पाती है। आमतौर पर ये 40 से 50 मीटर गहरे होते हैं और पक्के होते हैं। इनका मुंह अक्सर लकड़ी के पट्टों से ढका होता है जिससे लोग या पषु गिर न जाऐं क्योंकि राजस्थान में आवारा पषु अक्सर विचरण करते रहते हैं। कुएं आज भी जयपुर जिले में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं एवं वर्षा के पानी का उपयोग करने का सबसे अच्छा संसाधन है। जिले में कई स्थानों पर आज भी जल स्तर ऊपर ही है।
जल संसाधनों के अधिकतम प्रयोग का स्थानीय ज्ञान एक व्यवस्था डाकेरियान में झलकता है। जिन खेतों में खरीफ की फसल लेनी होती है, वहाँ बरसाती पानी को घेरे रखने के लिए खेत की मेडं़े ऊँची कर दी जाती हैं। यह पानी जमीन में समा जाता है। फसल कटने के बाद खेत के बीच में एक अस्थाई कुआं खोद देते हैं। जहां इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा हो जाता है फिर आसानी से इस पानी को काम में लिया जाता है।

Keywords

परम्परागत जल स्त्रोत, जल दोहन, उपमाओं का श्रृंगार, अमृत पेय।

 

. . .

Citation

राजस्थान के परम्परागत जल स्त्रोतों का समीक्षात्मक अध्ययन. Nihal Singh Bairwa. 2023. IJIRCT, Volume 9, Issue 4. Pages 1-6. https://www.ijirct.org/viewPaper.php?paperId=2307005

Download/View Paper

 

Download/View Count

59

 

Share This Article