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Publication Number

2307003

 

Page Numbers

1-6

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आधुनिक भारत में पंचायती राज में महिला सशक्तिकरण एक अध्ययन

Authors

Kirti Yadav

Abstract

महिला सशक्तिकरण का अभिप्राय महिलाओं को पुरूषों के बराबर वैधनिक, राजनीतिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में निर्णय लेने की स्वतंत्रता से है। उनमें इस प्रकार की क्षमता का विकास करना जिससे वे अपने जीवन का निर्वाह इच्छानुसार कर सकें एवं उनके अन्दर आत्मविश्वास और स्वाभिमान जागृत हो। महिला सशक्तिकरण एक बहुआयामी एवं सतत चलने वाली प्रक्रिया है।
सुशासन तब तक सफल नहीं हो सकता है जब तक आधी आबादी को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त हो जाता है। इस दिशा में पंचायती राज व्यवस्था कारगर और सार्थक भूमिका अदा कर सकती है। महिला सशक्तिकरण में पंचायती राज की विशेष भूमिका है, क्योंकि इसके माध्यम से सामाजिक सशक्तिकरण लाने का प्रयास किया जा रहा है। महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से पंचायती राज मील का पत्थर साबित हो रहा है। इसका उद्देश्य एक न्यायपूर्ण एवं सम-समाज की स्थापना करना है क्योंकि लैंगिक समता को सुशासन की कुंजी कहा जाता है। सुशासन तब तक सफल नहीं हो सकता है जब तक आध्ी आबादी को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त हो जाता है। इस दिशा में पंचायती राज व्यवस्था कारगर और सार्थक भूमिका अदा कर सकती है। महिला सशक्तिकरण में पंचायती राज की विशेष भूमिका है क्योंकि इसके माध्यम से सामाजिक एवं संस्थागत स्तर पर बदलाव आया है तथा राजनीतिक सशक्तिकरण के माध्यम से सामाजिक सशक्तिकरण लाने का प्रयास किया जा रहा है। कई अध्येता इसे नारीवादी क्रान्ति का नाम देते हैं क्योंकि इसका परिप्रेक्ष्य बहुत व्यापक है।
पंचायती राज लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का एक रूपः-
स्वायत्तशासी संस्थायें लोकतंत्र का मूल आधार है। सच्चे लोकतंत्र की स्थापना तभी मानी जाती है जबकि देश के निचले स्तरों तक लोकतांत्रिक संस्थाओं का प्रसार किया जाये एवं उन्हें स्थानीय विषयों का प्रशासन चलाने में स्वतन्त्राता प्राप्त हो। वस्तुतः ये संस्थायें ही लोकतंत्रा की सर्वश्रेष्ठ पाठशाला एवं लोकतंत्रा की सर्वश्रेष्ठ प्रत्याभूति हैं। स्थानीय संस्थायें सरकार के दूसरे अंगों से बढ़कर जनता को लोकतंत्रा की सुरक्षा देती है। पंचायती राज, लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का एक रूप है, जिसमें लोगों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करके पूर्व-निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रयास किये जाते है। अच्छी शासन-व्यवस्था के मुख्य लक्ष्यों के अन्तर्गत व्यवस्था को अधिकाधिक क्षमतावान बनाने हेतु जन आवश्यकताओं को पूर्ण करना, जन समस्याओं का निराकरण, तीव्र आर्थिक प्रगति, सामाजिक सुधरों की निरन्तरता, वितरणात्मक न्याय एवं मानवीय संसाधनों का विकास आदि शामिल हैं।
पंचायती राज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण जीवन का सर्वांगीण विकास करना है। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादन में वृद्धि ग्रामीण उद्योगों का विकास, परिवार कल्याण कार्यक्रम, सामाजिक वानिकी एवं वृक्षारोपण कार्यक्रम, पशु संरक्षण, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, शिक्षा व्यवस्था आदि का उचित प्रबन्धन कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ता प्रदान करना भी पंचायती राज का मौलिक उद्देश्य है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में उदारवादी लोकतन्त्र अपनाया। भारतीय लोकतन्त्र पूर्णतः ब्रिटिश संसदीय मॉडल पर आधारित है, किन्तु इसमें कुछ भारतीय मूल्यों का भी समावेश किया गया है। प्राचीन काल में जिस पंचायती राज की व्यवस्था का विकास हुआ था, उसका स्वरूप राजनीतिक कम, सामाजिक अधिक था। ग्राम पंचायतें गाँवों के सम्पूर्ण जीवन को दिशा देती थीं तथा भारतीय ग्रामीण जीवन स्वावलम्बी था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान निर्माताआंे ने गाँवों में पंचायतों को पाश्चात्य लोकतांत्रिक प्रणाली के आधार पर गठित करने की संविधान में व्यवस्था की।
संविधान में एक निर्देश समाविष्ट किया गया, ‘‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठायेगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिये आवश्यक हों’’ इस अनुच्छेद का उद्देश्य ग्राम पंचायतों के संगठन हेतु राज्यों की निर्देशित करना है।
भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी राज्य को स्थानीय परिषद् के स्तर पर लोकतंत्रा की स्थापना की सलाह दी एवं यह संप्रीक्षित किया कि- ‘‘हम भारत के लोग’’ शब्द मात्रा एक संवैधनिक मंत्र ही नहीं है, वरन् इसका तात्पर्य पंचायत स्तर से प्राम्भ होकर उपरी स्तर तक के उन लोगों से है जो ‘‘भारत की शक्ति के धारक है’’ं आरम्भ में गाँवों एवं नगरों के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में इन संस्थाओं की सक्रिय भूमिका रही, लेकिन कालांतर में ये संस्थायें निष्क्रिय होती चली गई। एक समय ऐसा आया कि ये संस्थायें मृत प्रायः सी हो गईं एक तरपफ लंबे समय तक इन संस्थाओं के चुनाव नहीं हुए तो दूसरी तरफ महिलाओं एवं पिछड़े वर्गों को सत्ता में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पायां इसका मुख्य कारण राज्यों में छिन्न-भिन्न कानून होना और उन पर केन्द्र का नियन्त्रण न होना रहां संविधान के अन्तर्गत ग्राम पंचायतों के गठन का नीति-निर्देशक तत्व सुनिश्चित होते हुए भी ये संस्थायें उपेक्षित सी रही अतएव इन्हें संवैधनिक दर्जा देने की आवश्यकता अनुभव की गईं इसके लिए सन् 1989 में 64वें संविधान संशोधन के रूप में पंचायती राज विधेयक लाया गया पर वह पारित नहीं हो सकां अंततः संविधान के 73 वें संशोध्न अधिनियम द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधनिक दर्जा प्रदान किया गयां।
पंचायती राज की स्थापना के उद्देश्य एवं भारतीय सन्दर्भ में इसके विकास के संक्षिप्त विवरण के साथ-साथ पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका के विश्लेषण का महत्वपूर्ण स्थान हैं विश्व आज सहस्राब्दिक परिवर्तनों की ऐसी दहलीज पर खड़ा है, जहाँ उसे चयन और चुनौतियों की व्यूह-रचना का सामना करना पड़ रहा हैं विश्व को आज मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों की प्रकार े परिवर्तनों का सामना करना पड़ रहा हैं मात्रात्मक परिवर्तनों का सम्बन्ध आर्थिक और तकनीकी विकास के साथ है, जबकि गुणात्मक परिवर्तनों का सम्बन्ध भिन्न मूल्यों और लोकाचार से अनुशासित नये समाज के प्रतिमान के साथ है, जहाँ मनुष्य ‘परभक्षी’, प्रदूषक और उपभोक्ता की बजाय ‘संरक्षक तथा उत्पादक’ की भूमिका का निर्वाह करें इन परिस्थितियों में, महिलाओं से इस शताब्दी के अन्तिम दौर में एक विशेष प्रकार की भूमिा की अपेक्षा की जा रही हैं महिलाओं के बारे में अध्ययनों और आंदोलनों का केन्द्र बिन्दु अब मानव हित में ‘नारी-मुक्ति’ से हट कर ‘महिलाओं को अधिकार’ देने पर केंद्रित हो गया है।

Keywords

 

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Citation

आधुनिक भारत में पंचायती राज में महिला सशक्तिकरण एक अध्ययन. Kirti Yadav. 2023. IJIRCT, Volume 9, Issue 4. Pages 1-6. https://www.ijirct.org/viewPaper.php?paperId=2307003

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